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Written By भाषा

भँवर म्हाने पूजन देओ गणगौर...

भँवर म्हाने पूजन देओ गणगौर... -
खेलन देओ गणगौर, पूजन देओ गणगौर, भँवर म्हाने पूजन खेलन देओ गणगौर। राजस्थान में आजकल हर गली-मोहल्ले चौबारे में यह गीत सुनने को मिल जाएगा। यह है रंग-रंगीले राजस्थान की लोक संस्कृति की एक बानगी। जब मेले-त्योहार की बात चले और राजस्थान का नाम जुबाँ पर नहीं आए, यह तहो नहीं सकता। आखिर राजस्थान का दूसरा नाम है ही लोक संगीत, त्योहार और मेले।

चैत्र मास में रंगों का त्योहार होली दहन के दूसरे दिन से ही सजी-धजी चहकती नवयौवनाएँ सोलह श्रृंगार किए नवविवाहिताएँ उमंग उल्लास से एक- दूसरी सहेली से हँसी- मजाक ठिठोली करते हुए 'बाड़ी ताला बाड़ी की किवाड़ी खोल, छोरियाँ आई दूब ने, थे कुणजी री बेटी हो, थे कुणजी री भैणा हो, काई थारो नाम है, म्हे बिरया दासजी री बेटी हूँ, रोवा म्हारो नाम है' लोकसंगीत गाती हुई मिल जाएँगी।

नवयौवनाएँ कन्याएँ तथा विवाहिताएँ अपने कलश को दूब और रंगीले फूलों से सजाते हुए अपने अंदाज में अपने भँवर को लेकर मजाक करती हुई गीत गुनगुनाती रहती हैं। पानी भरे कलश को हरी-हरी दूब से सजाकर इठलाती हुई बगीचे से गौर (पार्वती) और ईसर (शिव) को पूजने के लिए चल पड़ती हैं।

किंवदंती है कि युवती जिस भावना के साथ गणगौर की पूजा करेगी, उसको वैसा ही प्रियतम मिलेगा। नवविवाहित महिलाएँ अखंड सौभाग्य व सुहाग और नवयौवनाएँ इच्छित वर प्राप्ति के लिए सोलह दिन तक गणगौर पूजती हैं। गणगौर पूजने के पहले दिन महिलाएँ, नवयौवनाएँ मिट्टी के एक बर्तन में जौ और गेहूँ बोती हैं। सोलहवें दिन वे इन्हीं ज्वारों से गौर व ईसर की पूजा करती हैं।

एक पखवाड़े तक नियत समय पर ईसर-गौर की पूजा करके महिलाएँ अपने अमर सुहाग और नवयौवनाएँ मनचाहा पति पाने की कामना करती हैं। नवयौवनाएँ गौरा को अपनी बहन और ईसर को अपना जीजासा मानकर पूजा करती हैं।

गणगौर से एक दिन पहले लड़कियों एवं महिलाओं का सिंजारा होता है। इस दिन महिलाएँ सोलह श्रृंगार में सजी-धजी नजर आती हैं। सिंजारे पर नवविवाहितों के मायके से कपड़े और मिठाई आती है तो सगाई हो चुकी युवतियों के ससुराल से कपड़े और मिठाई, गुणे, घेवर भेजने का प्रचलन है।

गणगौर के दिन सजी-धजी कुँवारियाँ, सोलह श्रृंगार किए नवविवाहिताएँ एवं महिलाएँ गौरा-ईसर की पूजा करती हैं। गणगौर के दिन आम प्रचलित लोकगीत गाया जाता है, जिसमें नायिका अपने प्रियतम (भँवर) से गणगौर पूजने जाने का अनुरोध करती हुई गाती हैं 'खेलन देओ गणगौर, भँवर म्हाने खेलन देओ गणगौर, म्हारी सहेल्याँ जोवै बाट, भँवर म्हाने खेलन देओ गणगौर....

राजस्थान में जोधपुर, जयपुर, किशनगढ़, उदयपुर, नाथद्वारा में गणगौर मनाए जाने की अलग- अलग परंपराएँ हैं। गुलाबी नगरी जयपुर में अकेली गौर (गणगौर) की सवारी निकलती है। इतिहासविदों के अनुसार रजवाड़ों के शासन में जयपुर में ईसर गणगौर की सवारी निकलते समय किशनगढ़ के नरेश नीले अश्व पर ईसर की प्रतिमा जबरन उठाकर ले गए थे। तभी से जयपुर में गणगौर की अकेली सवारी निकलती है।

किशनगढ़ में ईसर-गणगौर की सवारी निकलती है। करीब दो दशक पूर्व किशनगढ़ में गणगौर पर्व पर एक पखवाड़े तक घूमर सहित अन्य सांस्कृतिक आयोजन होते थे, लेकिन पूर्व महाराजा सुमेरसिंह की हत्या के बाद से अब केवल गणगौर-ईसर की सवारी ही निकलती है।

जयपुर में गणगौर की सवारी देखते ही बनती है। पूरे शाही लबाजमे में कड़े सुरक्षा प्रबंधन के बीच गणगौर की सवारी निकलती है। भारत की संस्कृति से रूबरू होने के लिए हर साल हजारों देशी एवं विदेशी पर्यटक गणगौर के पर्व पर जयपुर आते हैं।

इतिहासविदों के अनुसार उदयपुर में राज परिवार की ओर से गणगौर का पर्व शानदार ढंग से मनाया जाता है। पूरे लबाजमे से पूर्व राज परिवार के निवास से गणगौर की सवारी निकलकर पिछौला झील तक जाती है। पिछौला झील पहुँचने पर गणगौर को नौका विहार करवाया जाता है।

नाथद्वारा में एक सप्ताह तक गणगौर समारोह मनाया जाता है। हर दिन गणगौर अलग श्रृंगार में नजर आती है वहीं जोधपुर में गणगौर पर्व पर ईसर गौर की सवारी निकलती है। नाथद्वारा में गणगौर पर्व की खासियत है कि गणगौर प्रतिमा को जिस रंग के वस्त्र धारण कराए जाते हैं उसी रंग के कपड़े में आम जन भी नजर आएँगे।

इतिहासविदों के अनुसार गरासिया भील जाति में मौजूदा समय भी गणगौर पर्व पर स्वतंत्र रूप से अपना जीवन साथी चुनने की परंपरा है। यह परंपरा अभी भी जारी है। भील समाज की जाति पंचायत भी इसको स्वीकार करती है।

सोलहवें दिन गणगौर की पूजा के बाद शाम को गणगौर को विसर्जन करने के बाद लौटते हुए 'गोरल ए तू आच्छी आ पाछी आ तनै बासई बिमला याद करे'। उदास मन से गाती हुई अपने घरों को लौट जाती हैं।

प्रदेशभर में गणगौर पूर्व रियासत काल से मनाए जाने की परंपरा चल रही है। राज्य सरकार के पर्यटन विभाग ने कुछ साल पूर्व धूमधाम से इसे मनाए जाने की योजना तैयार की, लेकिन यह योजना अमली जामा नहीं ले सकी।